कविता - बसंती हवा

हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ। सुनो बात मेरी - अनोखी हवा हूँ। बड़ी बावली हूँ, बड़ी मस्तमौला। नहीं कुछ फिकर है, बड़ी ही निडर हूँ। जिधर चाहती हूँ, उधर घूमती हूँ, मुसाफिर अजब हूँ। न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा, न इच्छा किसी की, न आशा किसी की, न प्रेमी न दुश्मन, जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ। हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ! जहाँ से चली मैं जहाँ को गई मैं - शहर, गाँव, बस्ती, नदी, रेत, निर्जन, हरे खेत, पोखर, झुलाती चली मैं। झुमाती चली मैं! हवा हूँ, हवा मै बसंती हवा हूँ। चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया; गिरी धम्म से फिर, चढ़ी आम ऊपर, उसे भी झकोरा, किया कान में 'कू', उतरकर भगी मैं, हरे खेत पहुँची - वहाँ, गेंहुँओं में लहर खूब मारी। पहर दो पहर क्या, अनेकों पहर तक इसी में रही मैं! खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी, मुझे खूब सूझी - हिलाया-झुलाया गिरी पर न कलसी! इसी हार को पा, हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों, हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ! मुझे देखते ही अरहरी लजाई, मनाया-बनाया, न मानी, न मानी; उसे भी न छोड़ा - पथिक आ रहा था, उसी पर ढकेला; हँसी ज़ोर से मैं, हँसी सब दिशाएँ, हँसे लहलहाते हरे खेत सारे, हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी; बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी! हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ! - केदारनाथ अग्रवाल

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